जंगल की मिट्टी से निकली ‘पिहरी’ दे रही मटन को टक्कर: सावन की बारिश में बाजार में लौटी ‘देशी मशरूम’ की दीवानगी


शशिकांत सनसनी
सावन की पहली फुहार के साथ ही जंगलों की धरती से निकलने वाली ‘पिहरी’ (देशी मशरूम) ने बाजार में दस्तक दे दी है। जंगलों की गोद में पत्तियों की सड़न और नमी से जन्म लेने वाली यह दुर्लभ सब्जी न सिर्फ स्वाद में बेमिसाल है, बल्कि इस बार कीमतों में भी मटन और चिकन को पीछे छोड़ रही है

गंडई क्षेत्र के जंगलों में जैसे ही हल्की बारिश हुई, पिहरी (स्थानीय नाम: भमोडी या फुटू) की खोज में आदिवासी परिवार तड़के जंगलों की ओर निकल पड़े। सड़क किनारे लगे अस्थायी ठेलों और थानों के सामने की दुकानों में अब इसी ‘शाकाहारी मटन’ की बहार है।


हर साल सिर्फ एक बार, पहली बिजली से जन्म

लोकमान्यता है कि जितनी ज्यादा बिजली चमकेगी, उतनी अधिक पिहरी उपजेगी। सालभर इंतजार के बाद यह सब्जी पहली बारिश और नमी महसूस करते ही साल और बांस के पेड़ों के नीचे प्राकृतिक रूप से उग आती है।
यह खेती से नहीं, जंगल की मिट्टी से मिलती है। बिना खाद, पानी या किसी मानवीय देखरेख के पैदा होने वाली यह जंगली मशरूम मात्र एक महीने तक ही मिलती है।


कीमतें 1000 रुपये किलो तक, फिर भी नहीं रुकी मांग

इस बार बाजार में पिहरी 200 रुपये से 700 रुपये प्रति किलो तक बिक रही है, जबकि कुछ स्थानों पर 1000 रुपये किलो तक के दाम देखे गए हैं।
इसके बावजूद लोग इसे बड़े चाव से खरीद रहे हैं क्योंकि यह सब्जी सिर्फ स्वाद नहीं, बल्कि अपनापन और जंगल की मिट्टी से जुड़ी खुशबू भी साथ लाती है।


रोजगार बना जंगल का तोहफा

पिहरी संग्रह करना आदिवासी समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण मौसमी रोजगार बन गया है। स्थानीय व्यापारी जंगल से पिहरी इकट्ठा करने वालों से सस्ते दाम में खरीदते हैं और फिर शहरों में ऊंचे दामों पर बेचते हैं। इससे ग्रामीणों को सीधी आर्थिक मदद भी मिल रही है।


औषधीय गुणों से भरपूर

पिहरी केवल स्वादिष्ट ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्यवर्धक भी है। कहा जाता है कि इसका चूर्ण कई बीमारियों में लाभकारी होता है, हालांकि इस पर वैज्ञानिक शोध की अभी और आवश्यकता है।


लोगों की जुबान पर स्वाद,

एक स्थानीय बुजुर्ग महिला कहती हैं:

“जब पिहरी निकलती है, तो लगता है जैसे बचपन के वो दिन लौट आए। ये सब्जी नहीं, हमारी यादों का हिस्सा है।”

सन के महीने में जंगलों की गोद से निकलने वाली पिहरी न सिर्फ प्राकृतिक अद्भुतता का प्रतीक है, बल्कि यह आदिवासी जीवन, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और स्वाद का संगम भी है।
साल में एक बार मिलने वाली इस सब्जी की दीवानगी कम नहीं होने वाली।