छत्तीसगढ़ के जगदलपुर शहर से एक ऐसा मार्मिक लेकिन समाज को आईना दिखाने वाला मामला सामने आया है, जो संकीर्ण परंपराओं के बीच मानवता और रिश्तों की ऊँचाई को दर्शाता है।
पुत्रवधू से बेटी तक का सफर:
जगदलपुर निवासी सीता देवी और श्यामलाल देवांगन ने अपने बेटे पारस देवांगन का विवाह रायगढ़ की गायत्री से किया था। लेकिन नियति को कुछ और ही मंज़ूर था।
कोरोना काल में एकलौते बेटे पारस की मौत हो गई।
घर पर छा गया सन्नाटा। सपनों की अर्थी उठ गई।
विधवा बहू, जो खुद ढह चुकी थी — फिर भी सास-ससुर का सहारा बनी:
पति के निधन के बाद गायत्री ने ना तो अपने जीवन से हार मानी, और ना ही सास-ससुर का साथ छोड़ा।
एक बेटी की तरह सेवा की,हर त्योहार, हर सुबह को बेटे की याद में डूबी आंखों के सामने खड़ी रही — चुपचाप, दृढ़।
और फिर एक दिन… सास-ससुर ने लिया बड़ा फैसला:
“अब गायत्री को नई ज़िंदगी मिलनी चाहिए।”
समाज की परवाह किए बिना, सीता-श्यामलाल ने खुद ही अपनी बहू के पुनर्विवाह की पहल की।
दहलीज़ पर कन्यादान किया।
“उसे बहू नहीं, बेटी समझकर विदा किया — ताकि वो फिर मुस्कुरा सके…”
समाज में चर्चा, सोशल मीडिया पर सराहना:
“ऐसे माता-पिता को प्रणाम!”
“जहाँ लोग विधवा को बोझ समझते हैं, वहाँ इनका कदम मिसाल है।”
“ये है असली सनातन — करुणा और कर्म का संगम।”
संदेश बड़ा है:
बहू अगर बेटी बन जाए, तो सास-ससुर भी माँ-बाप बन सकते हैं।
विधवा पुनर्विवाह सिर्फ अधिकार नहीं, इंसानियत है।
परंपराओं से ऊपर उठकर रिश्तों को नया नाम देना ही असली धर्म है।
🔚 क्लोजिंग लाइन:
“गायत्री को नया जीवन मिला — लेकिन समाज को एक नई सोच मिली।
और यही सोच, यही करुणा — एक नए भारत की नींव है…”